Sophia College के दसवें Documentary Film Festival के दौरान, मुझे विनय शुक्ला की फिल्म, नमस्कार, मैं रवीश कुमार (While We Watched) देखने का मौका मिला। यह फिल्म पत्रकार रवीश कुमार पर आधारित थी। फिल्म उनका तब अनुसरण करती है जब वह NDTV इंडिया में पत्रकारिता की अखंडता को बनाए रखने के लिए अथक प्रयास कर रहे थे।
मैं भारत की धारणाओं को आकार देने में समाचार चैनलों की शक्ति से बहुत प्रभावित हूं। इस देश की मेरी सबसे उज्ज्वल यादें महत्वपूर्ण समाचारों द्वारा चिह्नित हैं। उनका प्रभाव इतना अहम था कि, किसी तरह मैंने खुद पत्रकारिता पढ़ने का फैसला लिया। एक पत्रकारिता के छात्र के रूप में, मुझे पता चला कि धनी व्यक्तियों का एक छोटा तबका सभी प्रमुख मीडिया आउटलेट्स को नियंत्रित करता है। वे झूठी सूचना प्रसारित करने, या नागरिकों से जानकारी पूरी तरह छिपाने के लिए प्रत्येक कहानियों में हेरफेर करते रहते हैं।
मैं मानती हूं कि यह लेख पक्षपातपूर्ण हो सकता है, लेकिन मुझे इस फिल्म के प्रति गहरा लगाव महसूस हुआ। कुमार का Prime Time मेरे घर में TV समाचार का एकमात्र स्रोत था। इन वर्षों में — जैसे-जैसे उन्होंने 2010 की शुरुआत में EVM विवाद और 2016 की नोटबंदी से लेकर GST और किसानों के मुद्दों पर कवरेज तक की कहानियां उजागर कीं — वह मेरे लिए एक भरोसेमंद चेहरा बन गए।
उन की पत्रकारिता को अक्सर उपदेशात्मक और पाखंडी कहा जाता है। मेरा मानना है कि ऐसे देश में जहां गलत सूचना फैलाने वाली ऊंची आवाजों की बाढ़ है, या फिर भरोसेमंद जानकारी की पूरी तरह कमी है, वहां बदलाव लाने का केवल एक ही तरीका है। हर चीज़ को स्पष्ट करना और अत्यधिक संवाद करना।
कुमार उन कहानियों पर ध्यान केंद्रित करतें हैं जो उन्हें उच्च TRP रेटिंग नहीं दिलातीं। शुक्ला ने कुमार की पत्रकारिता की तुलना अन्य एंकरों (सुधीर चौधरी और अर्नब गोस्वामी जैसों) की "पत्रकारिता" के साथ करने का फैसला लिया। हमने इन एंकरों को अक्सर सरकार के खिलाफ बोलने वाले किसी भी व्यक्ति को "राष्ट्र-विरोधी," या “देशद्रोही” ठहराते हुए देखा होगा।
जब शुक्ला से पूछा गया कि किस वजह से उन्होंने भारत में दो तरह की पत्रकारिता की तुलना की, उन्होंने कहा, "मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं दोनों की तुलना करूंगा। मुझे शुरू में इसकी परवाह नहीं थी कि दूसरे क्या कह रहे हैं। फिल्म के पुराने संस्करण पूरी तरह से रवीश की यात्रा पर केंद्रित थे। और लोगों ने मुझसे पूछा, क्या हालात इतने खराब हैं? रवीश इतने गुस्से में क्यों हैं? ऐसा लग रहा था कि रवीश शून्यता में चिल्ला रहे थे।"
उन्होंने आगे कहा, "मुझे एक संदर्भ बनाने के लिए दूसरे पत्रकार के फुटेज लेने पड़े। मुझे पूरा विश्वास था कि मैं सिर्फ रवीश के आंतरिक जीवन को दिखाऊंगा, और लोग उस निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल होंगे। लेकिन, लोग ऐसा करने में सक्षम नहीं थे। टेस्ट स्क्रीनिंग में पहले वह अकेले थे, इसलिए लोग मामले की गहराई का अंदाजा नहीं लगा सके।"
कुमार के न्यूज़रूम में घटते कर्मचारियों को चित्रित करने का एक सार्थक माध्यम केक बन गया। जैसे वह ईमानदारी से काम जारी रखने की कोशिश करते रहे, कुमार को धमकी भरे फोन आते थे। दर्शक देखते हैं कि कुमार थक चुके थे। कि पत्रकारिता से उनका मन हटने लगा है।
हम एक परेशानी भरे समय में जी रहे हैं। जॉर्ज ऑरवेल के 1984 की याद आती है। अगर बड़ी शक्तियों के खिलाफ कुछ भी लिखा या कहा जाता है तो उसे मिटा दिया जाता है। एक गलत कदम और सब कुछ ढह सकता है। यह वह दुर्भाग्यपूर्ण दबाव है जिसके साथ कई पत्रकार काम करते हैं।
यह फिल्म विश्व स्तर पर प्रासंगिक हो जाती है क्योंकि यह हर किसी में मीडिया साक्षरता की कमी की ओर इशारा करती है। खासकर उन लोगों में जो विरोध की छोटी सी आवाज पर भी अपने सर्वोच्च नेता का नाम जपने लगते हैं। एक आदर्श दुनिया में, यह फिल्म व्यापक रूप से रिलीज़ होती, ताकि हर कोई इस समस्या की गहराई को समझ सकता।
यह फिल्म आज के समाज में पत्रकारिता की काली सच्चाई को दर्शाती है। शुक्ला का संवेदनशील और सूक्ष्म कैमरा यह दर्शाता है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का वज़न कितना भारी हो सकता है। विशेष रूप से तब जब कोई राष्ट्र महज़ नाम के लिए खुद को लोकतंत्र कहता है।
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